International Yoga Day: आज अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस है। भारत समेत विश्वभर में, योग-प्राणायाम के महत्व को परिलक्षित करते, विभिन्न आयोजन किये जा रहे हैं। भारतीय अध्यात्म परंपरा का यह अद्भुत वरदान, आज पूरे विश्व को स्वस्थ, सजग बनाकर संरक्षित-संवर्द्धित करने का माध्यम बन रहा है। योग दिवस पर, नैनीताल निवासी डॉ. हेमंत कुमार जोशी का यह आलेख, योग को और बेहतर ढंग से जानने-समझाने का प्रयास हैः

पाणिनि कृत संस्कृत व्याकरण के अनुसार युज् धातु में घञ् प्रत्यय के योग से योग शब्द की सिद्धि होती है जिसका अर्थ है जुड़ना/ जोड़ना अर्थात् योग व्यक्ति को मन, आत्मा और शरीर के साथ परस्पर जोड़ देता है। इससे व्यक्ति शारीरिक सुख के साथ ही कार्य एवं अकार्य, सत् एवं असत, विवेक एवं अविवेक आदि में भेद को समझ लेता है। योग अमृतयुत परम स्वास्थ्य औषधि है, सकल शरीर विज्ञान है, चरम विज्ञान के साथ ही एकाग्रभाव का मुख्य स्रोत है, मन-आत्मा-शरीर का संयोजक है,आत्मशक्ति का परिचायक है, चेतनता, समरसता, ज्ञान और कर्म का शिक्षक है।

योग व्यक्ति को आन्तरिक एवं बाह्य दोनों रूप से स्वस्थ, समृद्ध एवं विकसित करने का एक परम साधन है। मस्तिष्क, ह्रदय, फेफड़े, आंतें, यकृत् , तिल्लियां, अग्न्याशय, गुर्दा, ग्रन्थियां, रीढ़ की हड्डी आदि शरीर के महत्वपूर्ण अवयवों को योग सकारात्मक रूप से सत्प्रभावित करता है एवं आन्तरिक अवयवों की समृद्धि- स्वस्थता होने से व्यक्ति बाह्य रूप भी सुन्दर होता है। योग के माध्यम से कंकाल तन्त्र, ह्रदय तन्त्र, मांसपेशीय तन्त्र, पाचन तन्त्र, अन्तःस्त्रावी तन्त्र, तन्त्रिका तन्त्र, श्वसन तन्त्र, प्रतिरक्षित तन्त्र, मूत्रीय तन्त्र, प्रजनन तन्त्र आदि अपने-अपने विभागों का विधिवत् कार्य करने में समर्थ हो पाते हैं।

एक ओर मानव ने अपनी बुद्धि का परम प्रयोग करते हुए वैज्ञानिक युग में प्रवेश करके नित- नवीन आविष्कारों को जन्म दिया है और अपने जीवन को भौतिक रूप से सरल बनाया है। दूसरी तरफ वही मानव भौतिक सुखों को भोगते हुए अपने शरीर को रोगयुक्त-विकृत-विद्रूपित करते हुए स्वयं से तथा परिवार-समाज से कटकर, देखा-देखी प्रदर्शन के इस दौर में आध्यात्मिक-आत्मिक सुखों से दूर होते जा रहा है। इस कारण उसमें अशान्ति, निराशा, विषाद, अवसाद, रोग, भय, चिन्ता, भ्रम, क्रोध, द्वेष, ईर्ष्या, तनाव आदि बढ़ते जा रहे हैं।

उक्त दुर्गुणों से उच्च रक्तचाप, मधुमेह, सिरदर्द आदि बढ़ने से शरीर के महत्वपूर्ण अंग दुष्प्रभावित हो रहे हैं, केंसर जैसे असाध्य रोग विश्व में बढ़ने लगे हैं, शरीर के प्रमुख तन्त्र अपना कार्य समुचित रूप से नहीं कर पा रहे हैं जिससे मानव रोगों का घर बनते जा रहा है।

योगाचरण से शारीरिक, बौद्धिक, सांवेगिक, सामाजिक, आध्यात्मिक विकास होता है। चेतना के उच्च स्तर को प्राप्त करने, नैतिक मूल्यों में वृद्धि करने, मानसिक स्वस्थता, एकाग्रता एवं अन्तर्दृष्टि को विकसित करने, विविधता में एकता को बढ़ाने, आत्मविश्वास एवं आत्मसम्मान में वृद्धि करने का प्रमुख कारक योग ही है।

आदियोगी भगवान शिव हैं योगकला के प्रणेता

सर्वविदित है कि भारतीय वैदिक/ पौराणिक युग से ही योग की जड़ें जुड़ी हुई हैं। शास्त्रों में उपलब्ध है कि आदि योगी के नाम से भगवान् शिव ही थे, जिन्होंने इस कला को जन्म दिया। उसके पश्चात् 200 ईसा पूर्व महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में 195 योगसूत्रों का प्रणयन करके योग की परम्परा को विधिवत् आगे बढ़ाया। आज दुनिया के सभी योग गुरुओं के लिए योगसूत्र प्रेरणा एवं मार्गदर्शन का कार्य करते आए हैं।

दस साल से मनाया जा रहा है अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस

योगर्षि स्वामी रामदेव, स्वामी चिदानन्द मुनि, श्री श्री रविशंकर आदि सन्तों के प्रचार-प्रसार तथा भारतीय प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी जी की विशेष एवं जनकल्याणकारी पहल से, 11 दिसम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में विश्व योग दिवस मनाये जाने का प्रस्ताव पारित हुआ। 177 से अधिक देशों ने ध्वनिमत से इस प्रस्ताव को समर्थन दिया और परस्पर विचार-विमर्श के पश्चात् २१ जून उत्तरी गोलार्ध का सबसे बड़ा दिन होने के कारण और योग कर्म का प्रतीक होने से उक्त दिन को विश्व योग दिवस मनाये जाने के लिए सुनिश्चित् हुआ।

श्रीमद्भगवद्गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया योग का महत्व

प्राचीन भारतीय ऋषि-मुनियों और तत्त्ववेत्ताओं द्वारा प्रतिपादित योग एक विशिष्ट आध्यात्मिक प्रक्रिया है। महर्षि पतंजलि ने योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः अर्थात् चित्त की वृत्तियों में निरोध/ नियन्त्रण करना ही योग बताया है वहीं भगवान् श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में योगः कर्मसु कौशलम् और समत्वं योग उच्यते दो मुख्य परिभाषाओं से योग का महत्व प्रतिपादित किया है।

सप्त चक्र, षट्कर्म, त्रिदोष, त्रिगुण

सप्त चक्र, षट्कर्म, त्रिदोष, त्रिगुण आदि का वर्णन एवं शरीर के लिए इनकी महत्ता, साम्यावस्था तथा आवश्यकता योगशास्त्र में वर्णित है और यम-नियम-आसन-प्राणायाम-प्रत्याहार- धारणा-ध्यान-समाधि अष्टांग योगों के माध्यम से मानव जीवन के लिए इनकी उपादेयता भी विशेषरूप से व्याख्यायित की है।

मन-बुद्धि को बलिष्ठ करने का माध्यम है योग

जहां एक ओर खेल-व्यायाम करने से शरीर शुद्ध, मजबूत एवं बलिष्ठ होता है वहीं दूसरी ओर योग के माध्यम से मन, बुद्धि और शरीर सभी स्वस्थ-समृद्ध एवं बलिष्ठ होते हैं। यह मानव का सैद्धान्तिक प्रयोग के स्थान पर प्रयोगात्मक प्रयोग होना चाहिए तभी इसकी अनुभूति की जा सकती है। ध्यान, प्राणायाम, सूक्ष्म व्यायाम तथा आसन योग के प्रमुख प्रयोगात्मक पक्ष हैं जिनके प्रतिदिन आचरण से मानव परम सुख-वैभव को प्राप्त करता है।

योग अनुशासित-पवित्र जीवन के साथ असाधारण कार्य करने की क्षमता रखता है, निद्रा-तन्द्रा-आलस्य से मुक्त होकर वर्ण-लिंग-जाति-धर्म- अस्पृश्यता के भेद से मुक्त हो जाता है, आत्म कल्याण के साथ ही जनकल्याणकारी कार्यों में प्रवृत्त हो जाता है तथा अज्ञान मार्ग को छोड़कर जीवन के परम सत्य ज्ञान मार्ग में संलग्न हो जाता है।

दुर्गुणों की निवृत्ति का भी सशक्त माध्यम है योग

बौद्धिक-मानसिक-शारीरिक स्वस्थता की इच्छा के साथ ही दुर्गुणों की निवृत्ति और सद्गुणों की प्रवृत्ति के लिए तथा विभिन्न रोग, सन्देह, भ्रम, व्यसन, मिथ्याडम्बर , भूत-प्रेत बाधादि के निवारण के साथ आदि दैविक-भौतिक-आध्यात्मिक दुःखों की निवृत्ति के लिए योग मार्ग मंगलपथ है तथा परमौषधि है। सभी जाति-धर्मों के युवा-प्रौढ़-पुरुष-महिलाओं को इस मार्ग का आचरण-अनुसरण करना चाहिए यही मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य भी है।

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